20171004

मूर्तिकार की तरह गढ़ता है, गुरु

कवि दंडी की साहित्य साधना चल रही थी। मार्ग-दर्शन उन्हीं के पिता कर रहे थे। किसी भी दिशा में आगे बढ़ने के लिए विशेष प्रयास, विशेष पुरुषार्थ करना ही पड़ता है। पहलवानी करना चाहे या खिलाड़ी बनना हो, वाणी का उपयोग हो या लेखनी का, ज्ञानमार्गी बने या कठोर कर्म के पथ में उतरे-सभी के लिए यही एक तत्व ज्ञान है। जितना तपेगा उतना ही निखरेगा। जितनी रगड़ खाएगा उतनी ही चमक पाएगा। कवि दंडी अपनी उपलब्धियों को अपने समकालीन कवि कालिदास की प्रतिभा से आगे ले जाना चाहते थे। वह स्वयं पूरी लगन से श्रम कर रहे थे और उनके पिता पूरी तत्परता से निर्देशन।

श्रेष्ठ-साधक अपनी साधना में अपने मार्गदर्शक को प्रधानता देकर चलते हैं। मार्गदर्शक का संतोष ही उनकी प्रगति का मानदंड बनता है। एक बार लक्ष्य निर्धारित करके फिर कितनी सीढ़ियां किस प्रकार चढ़ना है, यह मार्ग दर्शक के ऊपर छोड़ कर साधक के लग जाते हैं अपनी समूची शक्ति के साथ निर्देश को पूरा करने में। इस स्थिति में हर कदम पर उन्हें निर्देशक के संतोष का ही ध्यान रहता है। मानो वही मूल लक्ष्य हो।

दंडी अपनी सम्पूर्ण निष्ठा से इसी साधना में तन्मय थे। उनकी प्रतिभा निखरने लगी। हर प्रयास पर उन्हें प्रशंसा भी मिलती और आलोचना भी। प्रशंसा से उत्साह बढ़ कर आलोचना से आत्मशोधन करते हुए वह बढ़ रहे थे। परिचितों की दृष्टि में उनका स्तर बहुत उच्चकोटि का माना जाने लगा था। औरों से प्रशंसा पाकर उनका मन प्रसन्नता से फूल उठता। अब वे यह आशा करने लगे, कि उनके मार्ग दर्शक भी उन्हें प्रशंसा के फूलों से लाद देंगे। किंतु वहाँ कुछ उल्टी सी प्रतिक्रिया हुई। प्रशस्ति के स्थान पर आलोचना बढ़ गयी। मन को बुरा लगा, परंतु विनयी शिष्य की तरह आदेशों का पालन करते रहै।

मोम जब तक नरम रहता है तो किसी भी आकार में सहज ही मुड़ जाता है, ना चटकता है और न बेडौल होता है। साधक की जब तक अपने स्वरूप के बारे में कोई मान्यता नहीं बनती- तब तक उसका अंतः करण भी नम्र मोम की भाँति होता है। उसे कैसा भी मोड़-ढाला जाये कोई कष्ट या प्रतिक्रिया अनुभव नहीं होती। लेकिन जब अपने स्वरूप की प्रतिष्ठा की कोई मान्यता-स्पष्ट या अस्पष्ट बनते ही वह अंतःकरण अपनी लोच खो बैठता है। फिर परिवर्तन से अपनी मान्यता का स्वरूप हिलता, बिगड़ता सा लगता है। न जाने कितनी प्रतिक्रियाएं मन को बेचैन करने लगती हैं। दंडी की स्थिति भी अब कुछ इसी तरह की होने लगी है। पिता के आदेश-निर्देश, उनकी मीन-मेख उन्हें अप्रीतिकर लगने गली थी। कभी-कभी अंदर रोष भी उत्पन्न होने लगता।

पिता सब कुछ जानते समझते हुए भी उस ओर तनिक सा ध्यान नहीं दे रहे थे। कुशल शिल्पी की तरह उनका ध्यान अपनी सुगढ़ मूर्ति की बारीक से बारीक कमी तक पहुँचता था। किसी पत्थर में मनुष्याकृति थोड़े से परिश्रम से ही उभरने लगती है। सामान्य जन उसके नाक-नक्शा देख कर ही संतुष्ट होने लगते हैं। लेकिन शिल्पी अपनी कल्पना भाव उसमें भरने के लिए उन सुँदर अंगों को भी बार-बार काटता-छाँटता व घिसता रहता है। दंडी के पिता को अपना कर्तव्य भली प्रकार मालूम था। शिष्य के पथ्य-कुपथ्य का उन्हें ध्यान था। इसी कारण वह अधिक तत्परता से अधिक बारीकी से अपने कार्य में लगे थे।

उधर शिष्य की अधीरता अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुँचा। उसे लगने लगा- कब मेरी श्रेष्ठता पूर्णता प्रमाणित करके अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर मिले। कब लोगों की प्रशंसा और श्रद्धा का भाजन बनूँ ?।” किंतु उनकी हर ऐसी कोशिश पर पिता द्वारा श्रेष्ठता स्वीकार करने के स्थान पर दोषों की सूची बढ़ दी जाती। बहिर्मुखी होने देने के स्थान पर अधिक एकाँत सेवन के लिए दबाव दिया जाता।

दंडी का रोष बढ़ने लगा। विकृत-अहंकार, सिद्धान्त और लक्ष्य दोनों पर हावी हो गया। सामने तो मर्यादा वश कुछ न कहते, किंतु इधर-उधर अपना असंतोष व्यक्त करने लगे। लेकिन पिता पर जैसे किसी बात का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था। वह अपने काम में निर्विकार चित्त हो पूरी तन्मयता से लगे थे। अन्य व्यक्तियों से तो प्रशंसा एवं सद्भावना मिल जाती, पर पिता कठोर के कठोर। दंडी को अपने अहंकार तुष्टि में एकमात्र बाधक अब वही दिखने लगे। उन्हें यहाँ तक लगने लगा कि इनके जीवित रहते मेरा संतोष संभव नहीं।

व्यक्ति जब ज्ञान सम्मोह, स्थिति में होता है, तब ऐसी ही स्थिति हो जाती है। विवेक कुँठित हो जाता है- तथा हित-अहित भूल जाता है केवल अपना अहंकार एवं उसकी तुष्टि ही सर्वोपरि दीखने लगती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति भयंकर से भयंकर निर्णय भी ले डालता है। अपनी सारी साधना को निरर्थक करने वाले कदम उठाने को तत्पर हो जाता है। कवि दंडी भी उसी प्रवाह में बह उठे। उन्होंने निर्णय कर लिया अपनी राह के काँटे को उखाड़कर फेंकने का। पिता- मार्गदर्शक गुरु की हत्या......। अविवेक पूर्ण भयंकर कुकृत्य। किंतु उस समय विचार कहाँ था, एक उन्माद, नशा था- जो सोचने नहीं देता।

रात्रि के पूर्व ही वे ‘सशस्त्र’ पिता के शयन कक्ष में छुप गये। घड़ी भर में भयंकर घटना हो जाती। पर नियति को कुछ और ही करना था। शयन के पूर्व दंडी की माता- पति को प्रणाम करने पहुँची। संयोग से उन्होंने अपने पुत्र का प्रसंग छेड़ दिया। माँ ने पुत्र का पक्ष लेते हुए उसके प्रति कड़ाई की शिकायत की। पुत्र की बढ़ती हुई प्रतिभा की सराहना की और पति से उनके कठोर व्यवहार का कारण पूछा।

सिरहाने के पास छुपे हुए दंडी की उपस्थिति से अनजान पिता का स्नेह ज्वार उफन पड़ा। मार्ग दर्शक की कठोरता हट गयी। भरी आँखों गदगद वाणी से वे अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। बड़ाई करते हुए बोले-” भद्रे! सच कहा जाय तो दंडी मेरी सीमा से भी आगे जा चुका है। किसी भी पिता को अपने ऐसे प्रतिभाशाली पुत्र पर

गर्व होगा.......।” दंडी के कान इससे अधिक कुछ न सुन सके। वह स्तब्ध, आश्चर्यचकित सोच रहे थे-” इतना स्नेह इतनी श्रेष्ठ मान्यता..... फिर इतनी कठोरता क्यों ?”

पुनः कानों ने सुनना शुरू किया। इस बार पिता नहीं मार्ग दर्शक गुरु बोल रहे थे। “ किंतु देवी! मेरा कर्तव्य कठोर है। दंडी की असाधारण क्षमता को यों ही नहीं छोड़ जा सकता। फिर उसका लक्ष्य भी कालिदास की प्रतिभा से आगे निकल जाने का है। इस अवसर पर मेरी थोड़ी सी ढील सदा के लिए उसकी प्रगति की संभावना समाप्त कर सकती है। पिता की तरलता पुत्र का अहित न कर दे, इस कारण गुरु भाव से अधिक कठोर बनना ही पड़ता है। दंडी इस कठोर साधना के योग्य नहीं हैं, ऐसा मेरा हृदय स्वीकार नहीं करता। यदि वह सह सका तो अवश्य पा लेगा। अन्यथा मेरा तिरस्कार करेगा तो भी उसका जो स्तर है, वह तो बना ही रहेगा। मैं क्यों उसके अंदर में हीन कल्पना लाकर अपना कर्तव्य छोड़ू ?”

दंडी की मानों समाधि लग गयी। सारा शरीर रोमाँचित हो रहा था- नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। कब माता चली गयी, कब पिता सो गये, उन्हें कुछ भान न हो सका। सारी रात वह एकटक अपने पिता को, अपने मार्ग दर्शक को देखते रहे, मनुष्य है या देवता। क्या देवता भी इतने उज्ज्वल हो सकते हैं......? आँसू झरते रहें- कलुष धुलता रहा।

प्रातः काल से दंडी अद्वितीय निष्ठावान शिष्य साधक हो गये। पिता के स्वकर्तव्यनिष्ठ स्वरूप ने शिष्य की भ्राँति मिटा दी और दंडी समर्थ कवि बन सके। स्वयं माँ सरस्वती ने उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की।

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