20250105

धर्म का आचरण पर स्वामी विवेकानन्दजी का विचार

आइए जानते है धर्म का आचरण पर स्वामी विवेकानन्दजी का विचार

स्वामी विवेकानन्द बताते है कि आप यह अच्छी तरह समझे कि किसी धर्म-पुस्तक का पाठ करने अथवा उसमें लिखी हुई धर्म विधियों की कवायद करने से ही कोई धार्मिक नहीं हो सकता। किसी धर्म या धर्म-पुस्तक पर विश्वास करने से ही यह ‘जन्म सार्थक नहीं होगा’ बल्कि उसमें बताये हुए मार्गों का अनुभव करना चाहिये।

‘जिनका अन्तःकरण पवित्र है, वे धन्य हैं, वे ईश्वर को देख सकेंगे ।’ परमेश्वर का साक्षात्कार करना ही मुक्ति है। कुछ मन्त्र रट लेने या मन्दिरों में शब्दाडम्बर करने से मुक्ति नहीं मिलती,परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन कुछ काम नहीं आते, उसके लिये आन्तरिक सामग्री की जरूरत है।

स्वामी विवेकानन्द कहते है कि इससे कोई यह न समझ लें कि बाहरी साधनों का मैं विरोधी हूँ। आरम्भ में उनकी आवश्यकता होती ही है पर साधक जैसा-जैसा उन्नत होता है, वैसी-वैसी उसकी उस ओर से प्रवृत्ति कम हो चलती है, आप यह निश्चय समझें कि किसी पुस्तक ने ईश्वर को उत्पन्न नहीं किया किन्तु ईश्वर की प्रेरणा से धर्म पुस्तकों की रचना हुई है। यही बात जीवात्मा और परमात्मा का ऐक्य कर देने का है। यही विश्वधर्म है। कल्पना और मार्ग भिन्न 2 होने पर भी सबका केन्द्र एक ही है।

स्वामी विवेकानन्द कहते है कि यदि कोई मुझ से प्रश्न करे कि सब धर्मों का मूल्य क्या है? तो मैं उसे यही उत्तर दूँगा कि ‘आत्मा की परमात्मा से एकता कर देना ही सब धर्मों का मूल है। सच्ची दृष्टि से छाया के समान देख पड़ने वाले और इंद्रियों से अनुभव होने वाले इस जगत में जिस दिन परमात्मा का अनुभव कर लेंगे उसी दिन हमरा मनोरथ सफल होंगे और तब हमको इस बात के विचार करने की आवश्यकता न होगी कि हमें परमात्मा का अनुभव किस मार्ग से प्राप्त हुई है। आप चाहे किसी मत को स्वीकार करें, या न करें, परमेश्वर का अस्तित्व अपने आप में अनुभव करने से ही आपका काम बन जायगा।

स्वामी विवेकानन्द बताते है कि कोई मनुष्य संसार के सब धर्मों पर विश्वास करता हो, संसार के सब धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ हों, संसार के सब तीर्थों में उसने स्नान किया हो । तो भी यह सम्भव नहीं है कि परमात्मा की स्पष्ट कल्पना भी उसके हृदय में हो ! इसके विपरीत सारे जीवन में जिसने एक भी मन्दिर या धर्मग्रन्थ नहीं देखा हो और न उसमें लिखी कोई विधि ही की हो, ऐसा पुरुष भी अन्तःकरण में परमात्मा का अनुभव करना सम्भव है।

जो मनुष्य कहता है कि मैं कहूँ वह सच है और सब मिथ्या है, यह कभी विश्वास योग्य नहीं। एक धर्म सच है तो अन्य धर्म कैसे मिथ्या हो सकते हैं? जो परम सहिष्णु और मानव जाति पर प्रेम करे उसे ही सच्चा साधु समझना चाहिए। परमेश्वर हमारा पिता और हम सब भाई हैं, यही भावना मनुष्य को उन्नत बना सकती है।

यदि कोई जन्म से अज्ञान है तो क्या उसका कर्त्तव्य ज्ञान सम्पादन करने का नहीं है? अगर वह यों कहे कि हम जन्म से मूर्ख हैं तो अब क्यों ज्ञानी बनें, तो सब उसे महामूर्ख कहेंगे। यदि हमारे संकुचित विचार हों तो उन्हें महान बनाना क्या हमारे लिये कोई अपमान की बात है?

स्वामी विवेकानन्द बताते है कि धर्मोपासना के विशिष्ट स्थान है , निश्चित और खास विधि धर्म-ग्रन्थों में बताये गए हैं, उनके लिये एक दूसरों का उपहास करना क्या कोई बुद्धिमानी है? ये तो बालकों के खिलौनों की तरह हैं। ज्ञान होने पर बालक जिस प्रकार उन खिलौनों की परवाह नहीं करते, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुँचे हुए लोगों को उक्त साधनों का महत्व नहीं प्रतीत होता है। पूर्व मे बिना जाने बूझे किसी खास मत पन्थों को मानने और ज्ञान होने पर भी मानते रहना, बचपन का वस्त्र युवावस्था में पहनने की इच्छा करने के बराबर उपहास के योग्य है।

स्वामी विवेकानन्द कहते है कि मैं किसी धर्म पन्थ का विरोधी नहीं हूं और न मुझे उनकी अवश्यकता ही प्रतीत होती है। पर यह देखकर हँसी रोके से भी नहीं रुकती कि कुछ लोग स्वयं जिस धर्म के रहस्यों को नहीं जानते उस पर बाते करते है। यदि वे अपना अमूल्य समय इस कठिन काम के बजाय उन सिद्धांतों को सीखने में लगाएं तो क्या ही अच्छा हो।

वे कहते है कि अनेक धर्मपन्थ उन्हें खटकते क्यों हैं ये मेरी समझ में नहीं आता है ! अगर लोग अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म का पालन करें, तो इससे किसी को क्या नुकसान होगा? भले ही किसी व्यक्ति का अपना धर्म हो, मेरी राय में, कोई नुकसान नहीं बल्कि लाभ ही है। क्योंकि विविधता दुनिया की सुंदरता को बढ़ाती है। उदर तृप्ति के लिये अन्न की आवश्यकता है, परन्तु एक ही रस की अपेक्षा अनेक रसों के विविध पदार्थ होने से भोजन में अधिक रुचि आती है। अगर एक ग्रामीण व्यक्ति, जो विभिन्न प्रकार के भोजन को पसंद नहीं करता है और केवल रोटी तथा प्याज के टुकड़े से पेट भर लेता है, यदि किसी खाने के शौकीन के नाना पदार्थ की निन्दा करे तो वह खुद जिस प्रकार उपहास के पात्र होगा, उसी प्रकार जो लोग एक ही धार्मिक पद्धति का पालन करते हुए अन्य धर्मों की आलोचना करते हैं, वे भी प्रशंसा के पात्र नहीं हो सकते।

Source - अखण्ड ज्योति

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