युग निर्माण सत्संकल्प: व्यक्तित्व और समाज के उत्थान के लिए 18 सूत्रों की विस्तृत व्याख्या
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा प्रतिपादित "युग निर्माण सत्संकल्प" एक ऐसा वैचारिक घोषणापत्र है, जो व्यक्ति के आत्म-परिवर्तन से समाज और युग के रूपांतरण की दिशा दिखाता है। इन अठारह संकल्पों को केवल वचन या नियम की तरह नहीं, बल्कि जीवनशैली की आत्मा मानकर अपनाना चाहिए। यह आलेख प्रत्येक सत्संकल्प को व्यावहारिक उदाहरणों, परिवारिक जीवन से जुड़ी सजीव स्थितियों और समाज सुधार के परिप्रेक्ष्य में विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करता है।
1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे। जीवन की सुंदरता का आधार बाहरी चकाचौंध नहीं, बल्कि आंतरिक मधुरता, सादगी और स्वच्छता होती है। जब एक परिवार स्वच्छता को अपना मूल्य मानता है, तो वहाँ स्वास्थ्य के साथ-साथ मनोवृत्ति भी सकारात्मक होती है। मधुरता का व्यवहार में आना — जैसे पति-पत्नी के बीच नम्रता से संवाद, बच्चों को डाँटने की बजाय समझाना — परिवार को उन्नति की ओर ले जाता है। सज्जनता का अर्थ है दूसरों के लिए सहज होना। यदि परिवार का मुखिया सेवाभाव से घर चलाए, तो बच्चे भी स्वाभाविक रूप से वही गुण सीखते हैं।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे। आज की दुनिया में जहाँ परिणाम को ही सबकुछ माना जाता है, वहाँ नीति पर टिके रहना एक चुनौती है। परंतु सच्चे युग निर्माणकर्ता वही हैं जो सही मार्ग पर चलते हुए संघर्ष को गले लगाते हैं। यदि कोई विद्यार्थी नकल करके पास होने से इनकार करता है, तो वह एक नयी पीढ़ी के निर्माण में ईंट बनता है। परिवार में यदि माँ-पिता यह शिक्षा दें कि पैसा कम हो, पर ईमानदार हो, तो बच्चे जीवन में नैतिक बल के साथ आगे बढ़ते हैं।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे। आज समाज व्यक्ति की शोहरत, दौलत या ओहदे से उसका मूल्यांकन करता है। परंतु एक व्यक्ति कितना संवेदनशील, परोपकारी और सदाचारी है — यही सच्चा मापदंड होना चाहिए। जैसे यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन वृद्धजनों की सेवा करता है, जरूरतमंदों की मदद करता है, तो वह बिना प्रसिद्धि के भी महान है। परिवारों में बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि अच्छा इंसान बनना ही सबसे बड़ी सफलता है।
11. दूसरों के साथ यह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिये पसंद नहीं। यह संकल्प स्वर्ण नियम जैसा है। यदि हर व्यक्ति यह सोचकर व्यवहार करे कि जो मैं कर रहा हूँ, वही मेरे साथ होता तो कैसा लगता — तो झगड़े, शोषण, धोखा स्वतः मिट जाएँ। उदाहरण के लिए, यदि पति पत्नी से अपेक्षा करता है कि वह सम्मान दे, तो उसे भी उसकी भावनाओं और श्रम का आदर करना होगा। यही नियम बच्चों पर भी लागू होता है — अगर हम बच्चों को डाँटते हैं, तो यह सोचें कि यदि हमें ऐसे फटकारा जाए तो कैसा लगेगा।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे। समाज में यौन शुचिता और मर्यादा का संरक्षण आवश्यक है। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं, भोग-वस्तु नहीं। यदि एक कार्यस्थल या मोहल्ले में महिलाएँ सुरक्षित महसूस नहीं करतीं, तो वहाँ सभ्यता का क्षरण है। परिवार में बेटों को यह सिखाना आवश्यक है कि बहनें, माँ और पत्नी सभी सम्मान की अधिकारी हैं। यह शिक्षा बाल्यकाल से ही संस्कारों द्वारा दी जानी चाहिए।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिये अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे। युग निर्माण तभी संभव है जब अच्छे लोग अपने संसाधनों का एक अंश लोकमंगल में लगाएँ। जैसे यदि एक परिवार हर माह कुछ राशि गौशाला, अनाथालय या बाल संस्कारशाला को दान करता है, तो वह समाज निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाता है। इसी प्रकार, कोई गृहणी यदि सप्ताह में एक दिन मोहल्ले की स्त्रियों को प्रेरक कथा सुनाए, तो यह पुण्य प्रसार है।
14. परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे। परंपराएँ उपयोगी होती हैं, पर अंधानुकरण नहीं। यदि कोई परंपरा आज के संदर्भ में समाज के लिए अहितकर हो, तो उसे विवेकपूर्वक त्याग देना चाहिए। उदाहरण के लिए, कन्यादान को बोझ मानना या बेटियों की शिक्षा को व्यर्थ समझना — ये परंपराएँ नहीं, रूढ़ियाँ हैं। यदि परिवार में विवेक का प्रयोग हो, तो वहाँ विचारशीलता पनपेगी, और नया युग जन्म लेगा।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे। युग परिवर्तन अकेले संभव नहीं, इसके लिए सज्जनों का संगठन आवश्यक है। यदि एक कॉलोनी के सभी आदर्शवादी लोग संगठित होकर नशा मुक्ति अभियान चलाएँ, तो उसका असर गहरा होगा। अनीति से टकराने का साहस तभी आता है जब साथ हो। परिवारों को भी यह सिखाना चाहिए कि केवल अपने घर की नहीं, समाज की भी चिंता करो। नवसृजन की गतिविधियाँ — जैसे बाल संस्कारशालाएँ, स्वावलंबन शिविर — इसमें भागीदारी आवश्यक है।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे। देश की शक्ति उसकी विविधता में है, न कि विभाजन में। यदि हम घर में बच्चों को यह सिखाएँ कि सभी धर्म, जातियाँ समान हैं, तो वे एक सच्चे नागरिक बनेंगे। विवाह, मित्रता, रोजगार — हर जगह यदि समानता का भाव हो, तो समाज में समरसता का वातावरण बनेगा। यदि पति-पत्नी एक-दूसरे के धर्म या परंपरा को आदर दें, तो उनका रिश्ता भी आदर्श बनता है।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा। भाग्य को दोष देना छोड़कर यदि हम अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें, तो हर बाधा अवसर बन सकती है। एक माँ यदि निर्धनता में भी बच्चों को शिक्षित करे, तो वह युग निर्माता है। यदि एक बेटा अपने पिता की शराब की लत से त्रस्त होकर प्रण करे कि वह कभी नशा नहीं करेगा, तो वह अपने वंश का उद्धार करता है। आत्म-परिवर्तन ही युग परिवर्तन की पहली सीढ़ी है।
18. 'हम बदलेंगे युग बदलेगा', 'हम सुधरेंगे युग सुधरेगा' — इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है। यह अंतिम संकल्प अपने भीतर एक पूर्ण दर्शन समेटे हुए है। जब हम खुद को बदलने का संकल्प लेते हैं, तभी समाज में परिवर्तन संभव है। यदि हर परिवार यह तय करे कि वह सत्य, शांति, सेवा, सदाचार के मार्ग पर चलेगा, तो नयी पीढ़ी अपने आप संस्कारित होगी। हम सुधरेंगे, परिवार सुधरेगा, समाज सुधरेगा और अंततः पूरा युग सुधर जाएगा — यही युग निर्माण का सच्चा मार्ग है।
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